गुरुवार, 20 मई 2010

काँच की काया

काँच की  काया
जो शोभा थी झरोखों की
काम था जिसका अटारियों  से झांकना
और ताकना घोर है कितना अँधेरा
लोग है बौने बाजारों में
और वह ऊँची सदा बेशक बंद
शिख्चो , दरवाजो में |

पर रुख लिया था बदल
जिंदगी ने अब उसकी
रह ली उसने खुद उन बाजारों की
जहाँ लोग दिखते थे उसे बौने |

छोड़  कर  शीश  महलो को 
ढूंढ़ ली उसने बहुमंजिली इमारते |
जहाँ मिली उसे नयी पहचान
उसका अपना एक अस्तित्व
कांच का केविन ,टेबल ,कुर्सी | |

पर फिर वही असमंजस्य
आज भी वहां दिखते है
लोग उसे  बौने |
जो कभी दिखा करते थे | 
उसे उन शीश महलो से
उनके बीच पहुँच  कर भी
ऊँची  ही नज़र आती "वह "
छूने भर से मैली हो जाने वाली
काँच की काया || 

1 टिप्पणी:

  1. पर फिर वही असमंजस्य
    आज भी वहां दिखते है
    लोग उसे बौने |
    जो कभी दिखा करते थे |
    उसे उन शीश महलो से
    उनके बीच पहुँच कर भी
    ऊँची ही नज़र आती "वह "
    छूने भर से मैली हो जाने वाली
    काँच की काया ||

    Oh ! "use" log band cabin aur show case me hi pasand karte hain..Hasraten bhi wahi qaid ho jati hain..

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